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द्वाद॑श प्र॒धय॑श्च॒क्रमेकं॒ त्रीणि॒ नभ्या॑नि॒ क उ॒ तच्चि॑केत। तस्मि॑न्त्सा॒कं त्रि॑श॒ता न श॒ङ्कवो॑ऽर्पि॒ताः ष॒ष्टिर्न च॑लाच॒लास॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dvādaśa pradhayaś cakram ekaṁ trīṇi nabhyāni ka u tac ciketa | tasmin sākaṁ triśatā na śaṅkavo rpitāḥ ṣaṣṭir na calācalāsaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्वाद॑श। प्र॒ऽधयः॑। च॒क्रम्। एक॑म्। त्रीणि॑। नभ्या॑नि। कः। ऊँ॒ इति॑। तत्। चि॒के॒त॒। तस्मि॑न्। सा॒कम्। त्रि॒ऽश॒ताः। न। श॒ङ्कवः॑। अ॒र्पि॒ताः। ष॒ष्टिः। न। च॒ला॒च॒लासः॑ ॥ १.१६४.४८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:48 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:48


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वद्विषय में शिल्प विषय को कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस रथ में (त्रिशता) तीनसौ (शङ्कवः) बाँधनेवाली कीलों के (न) समान (साकम्) साथ (अर्पिताः) लगाई हुई (षष्टिः) साठ कीलों (न) जैसी कीलें जो कि (चलाचलासः) चल-अचल अर्थात् चलती और न चलती और (तस्मिन्) उसमें (एकम्) एक (चक्रम्) पहिया जैसा गोल चक्कर (द्वादश) बारह (प्रधयः) पहिओं की हालें अर्थात् हाल लगे हुए पहिये और (त्रीणि) तीन (नभ्यानि) पहिओं की बीच की नाभियों में उत्तमता में ठहरनेवाली धुरी स्थापित की हों (तत्) उसको (कः) कौन (उ) तर्क-वितर्क से (चिकेत) जाने ॥ ४८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई ही विद्वान् जैसे शरीर-रचना को जानते हैं वैसे विमान आदि यानों को बनाना जानते हैं। जब जल, स्थल और आकाश में शीघ्र जानेके लिये रथों को बनाने की इच्छा होती है तब उनमें अनेक जल अग्नि के चक्कर, अनेक बन्धन, अनेक धारण और कीलें रचनी चाहियें, ऐसा करने से चाही हुई सिद्धि होती है ॥ ४८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषये शिल्पविषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यस्मिन्याने त्रिशता शङ्कवो नेव साकमर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासस्तस्मिन्नेकं चक्रं द्वादश प्रधयस्त्रीणि नभ्यानि च स्थापितानि स्युस्तत् क उ चिकेत ॥ ४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्वादश) (प्रधयः) धारिका धुरः (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानम् (एकम्) (त्रीणि) (नभ्यानि) नहौ नभो साधूनि। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य भः। (कः) (उ) वितर्के (तत्) (चिकेत) जानीयात् (तस्मिन्) (साकम्) सह (त्रिशता) त्रीणि शतानि येषु (न) इव (शङ्कवः) कीलाः (अर्पिताः) (षष्टिः) (न) इव (चलाचलासः) चलाश्च अचलाश्च ताः। अयं निरुक्ते०। ४। २७। ॥ ४८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। केचिदेव विद्वांसो यथा शरीररचनां जानन्ति तथा विमानादियाननिर्माणं विदन्ति। यदा जलस्थलाऽऽकाशेषु सद्यो गमनाय यानानि निर्मातुमिच्छा जायते तदा तेषु अनेकानि जलाग्निचक्राण्यनेकानि बन्धनानि अनेकानि धारणानि कीलकाश्च रचनीयाः। एवं कृतेऽभीष्टसिद्धिस्स्यात् ॥ ४८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. काही विद्वान जशी शरीररचना जाणतात तसेच काही विद्वान विमान इत्यादी यान तयार करणे जाणतात. जेव्हा जल, स्थल व आकाशात शीघ्र गमन करण्यासाठी ताबडतोब रथ तयार करण्याची इच्छा होते तेव्हा त्यात पुष्कळ जल, अग्निचक्र, अनेक बंध, अनेक प्रकारचे धारण, अनेक उपकरणे वापरली पाहिजेत. असे केल्यामुळे इच्छित सिद्धी होते. ॥ ४८ ॥